आजादी से पहले शुरू हो गया था आरक्षण
इस दौरान आरक्षण पर विस्तार से अलग-अलग सवाल उठे। समानता बनाम योग्यता का सवाल आया। पूछा गया कि क्या अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद भी आरक्षण की जरूरत है? इसका हकदार कौन है, आरक्षण जाति के आधार पर दिया जाए या फिर आर्थिक आधार पर? फिर एक बड़ा सवाल उठा आरक्षण कब तक रहेगा? इसी बात की तरफ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस त्रिवेदी और जस्टिस पारदीवाला ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए सबका ध्यान खींचा।
आजादी के बाद आरक्षण की जरूरत क्या है?
आर्थिक आधार पर आरक्षण को ना
अंत में यह तय हुआ कि…
धर्मशास्त्री जेरोम डिसूजा ने तर्क रखा कि किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण के लिए विशेष आधार नहीं माना जाना चाहिए। किसी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है। आखिर में जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण तय किया गया।
डॉ. आंबेडकर ने महत्वपूर्ण बात कही, ‘150 साल तक मजबूती से कायम रही अंग्रेजी हुकूमत में भारत के सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे क्योंकि प्रतिनिधित्व नहीं मिला। ऐसे में भारत के दलित समाज की स्थिति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।’ बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमति बनी। अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है लेकिन कहीं भी आर्थिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। यही वजह है कि सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर शब्द जोड़ने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ी।
आरक्षण तो ठीक लेकिन कब तक?
आखिर में बड़ा सवाल था कि आरक्षण कब तक रहेगा? संविधान सभा के सदस्य हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि संविधान के लागू होने के बाद 10 साल तक आरक्षण के प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन ये प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए। इस प्रावधान की समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ रहा है या नहीं। ठाकुर दास भार्गव ने भी कहा था कि इस तरह के प्रावधान को 10 साल से ज्यादा न रखा जाए, बहुत जरूरत पड़े तो ही बढ़ाया जाए। निजामुद्दीन अहमद ने कहा कि नहीं, इस सिस्टम को अनिश्चितकाल रखना चाहिए, लेकिन यह प्रस्ताव पास नहीं हुआ।
मुसलमान 1892 से सुविधा भोग रहे है, ईसाइयों को 1920 से सुविधाएं मिल रही हैं। अनुसूचित जाति को तो सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं इसलिए उन्हें ज्यादा लंबे समय तक सुविधाएं दी जानी चाहिए। चूंकि एक बार में 10 साल के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास हो चुका है, मैं इसे स्वीकार करता हूं। हालांकि इसे बढ़ाने का विकल्प हमेशा रहना चाहिए।
संविधान सभा ने सरकारी शिक्षण संस्थानों, सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरियों में एसी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण तय किया था। यह 10 वर्षों के लिए था। कहा गया था कि 10 साल के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी। जबकि सच्चाई यह है कि 75 साल तक बिना किसी गंभीर समीक्षा के आरक्षण को हर 10 साल के बाद बढ़ाया जाता रहा। अब सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर बात कही है।
आरक्षण के तहत नौकरी की पहली भर्ती और अहम पड़ाव
- आजादी मिलने पर खुली प्रतियोगिता के जरिए भर्ती निकाली गई। इस संबंध में 12.5% रिक्तियां अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित की गईं।21/9/1947 को आदेश जारी किया गया। 1951 की जनगणना में पता चला कि कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों का प्रतिशत 15.05 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों का प्रतिशत 6.31 था। 1961 की जनगणना में सामने आया कि एससी 14.64 प्रतिशत और एसटी 6.80 प्रतिशत थे।
- 25/3/1970 को आरक्षण की प्रतिशतता अनुसूचित जातियों के लिए 12.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों के लिए 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया गया।
- 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट आई और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश की गई। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को वीपी सिंह सरकार ने सरकारी नौकरियों में लागू कर दिया। 1992 में ओबीसी आरक्षण को सही ठहराया गया। बाद में केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
- भारत में 49.5 प्रतिशत का आरक्षण चलता रहा। सुप्रीम कोर्ट का फैसला था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता लेकिन राज्य आगे बढ़ गए। अब गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत अलग कोटा का प्रावधान किया गया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई है।