मिस्र सभ्यता के दौर में पहली बार टैबलेट्स के उपयोग किए जाने की जानकारी मिलती है. उस दौर में इन दवाओं को चिकनी मिट्टी या ब्रेड में मिक्स किया जाता था. इसके अगले 5 हजार साल यानी 20वीं सदी तक दवाइंया गोल और सफेद हुआ करती थीं. लेकिन, आज तकनीकी एडवांस के साथ लगभग सबकुछ बदल गया है. दवाओं के रंग में बदलाव का दौर 60 के दशक में शुरू हुआ और 1975 में सॉफ्टजेल कैपसूल्स तैयार करने के लिए तकनीक के बाद इसमें बड़े बदलाव हुए. सबसे पहले चमकीला लाल रंग, पीला हरा रंग और चटखदार पीले रंग की दवाएं आने लगीं.
समय के साथ बदले हैं दवाओं के रंग और कोटिंग
जेल कैपसूल्स के लिए करीब 80,000 कलर कॉम्बिनेशंस का उपयोग किया जाता है. टैबलेट की बात करें तो समय के साथ इसके रंगों और कोटिंग में कई तरह के बदलाव हुए हैं. लेकिन, इन जानकारियों के बीच एक सवाल अब भी है कि क्या दवाइयों पर इन रंगों का कोई मतलब होता है? एक तर्क तो रंग-बिरंगी दवाएं देखने में अच्छी लगती हैं और कंपनियों को इनकी मार्केटिंग का एक नया तरीका मिल जाता है. कई बार बुजुर्ग लोग सफेद रंग की कई दवाओं के बीच कनफ्यूज़ हो जाते हैं. इस बात की संभावना बनी रहती है कि कहीं गलत दवा तो नहीं खा ली.
इमोशनल अपील का जरिया
अमेरिका में एक रिसर्च में पाया गया कि जो लोग नियमित तौर पर दवा खाते हैं, उन्हें चमकदार या किसी भी स्पष्ट रंग में दिखने वाली दवा खाना अच्छा लगता है. इस प्रकार यह तय हुआ कि रंगी-बिरंगी दवाएं इमोशनल अपील के लिए अच्छी तो होती ही हैं, साथ में गलत दवा खाने की भी गुंजाईश नहीं रहती है.
मरीजों के रिस्पॉन्स से भी तय होता है दवा का रंग
इस रिसर्च में एक और बात सामने आई है कि मरीजों का रिस्पॉन्स उनको दी जाने वाली दवाओं के रंग के आधार पर भी तय होता है. उदाहरण के तौर पर समझें तो हल्के नीले रंग की दवाएं अच्छी नींद के लिए दी जाती हैं. किसी बीमारी से जल्दी राहत के लिए लाल रंग की दवाएं दी जाती हैं.
स्वाद, गंध और तापमान का भी ख्याल
दवाओं की गंध और स्वाद के आधार पर भी उनका रंग तय होता है. रोमन सभ्यता के बारे में बात करते हुए कहा जाता है कि लोग रंगों के हिसाब से भी किसी चीज़ को खाने या न खाने का फैसला लेते थे. 14वीं शताब्दी तक मक्खन को पीले रंग में रंगा जाता था. दवाओं का रंग तापमान के आधार पर भी तय होता है. जैसे नीली रंग की दवांए ठंडे का प्रतीक हैं तो वहीं संतरे रंग की दवाएं गर्मी का प्रतीक हैं.
फार्मा कंपनियों के लिए ब्रांड इमेज बनाने का जरिया
अब तो फार्मा कंपनियां दवाओं की रंग की मदद से अपने ब्रांड इमेज को भी तैयार करती हैं. आज के समय में तो ये दो खास कारणों से और भी महत्वूपर्ण हो गया है. पहला तो यह कि पहले कई दवाओं के लिए आपको डॉक्टर्स के पर्ची की जरूरत होती थी. लेकिन अब आप इन्हें सीधे मेडिकल स्टोर्स से खरीद सकते हैं. अब 73 फीसदी ग्राहक मेडिकल स्टोर पर ही जाकर फैसला लेते हैं कि उन्हें किस दवा की जरूरत है.
ऐसे में दवा कंपनियां खास रंग और आकार की दवाएं बनाती हैं ताकि मेडिकल स्टोर के काउंटर पर खड़े शख़्स की नजर उस दवा पर जाए और वो इसे खरीदने का निर्णय लें. कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच कंपनियां दवाओं के डिज़ाइन पर भी खास ध्यान देती हैं.
ग्राहकों तक पहुंचने की कोशिश
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अब अधिकतर मेडिकल रेगुलेटर्स ने फार्मा कंपनियों से उस प्रतिबंध को हटा दिया है, जिनमें ये कंपनियां सीधे ग्राहकों तक इसकी मार्केटिंग नहीं कर सकती हैं. अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (USFDA) भी इसका एक उदाहरण है. अब ब्रॉडकास्ट, सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट फॉर्मेट में दवा कंपनियों के विज्ञापन होते हैं. दवा कंपनियां अब दवाओं के अलावा उनके नाम, आकार, डिज़ाइन, मार्केटिंग से लेकर बिक्री के तरीकों पर भी बहुत रिसर्च करने लगी हैं.