स्वतंत्र वीर सावरकर फिल्म की समीक्षा

अभिनेता रणदीप हुड्डा ने क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर पर आधारित फिल्म बनाने का कारण बताते हुए कहा था कि यह एंटी-प्रोपेगंडा फिल्म है, जो सावरकर से जुड़ी दूषित धारणाओं को खत्म करेगी।फिल्म शुरू से ही उसी दिशा में आगे बढ़ती है, जहां फिल्म के निर्देशक, सह-लेखक और सह-निर्माता रणदीप एक-एक तारीख और अहम घटना का जिक्र करते हैं।

क्या है स्वातंत्र्य वीर सावरकर की कहानी? 

कहानी विनायक दामोदर सावरकर  के बचपन से आरंभ होती है। महामारी की वजह से मरणासन्न उनके पिता कहते हैं कि इस क्रांति में कुछ नहीं रखा है विनायक, अंग्रेज बहुत बड़े हैं, लेकिन विनायक के मन में क्रांति की ज्वाला उम्र के साथ और भड़कती है।अपने आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह भी मानते हैं कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए देश को सशस्त्र होना होगा। कॉलेज में ही वह अंग्रेजों के खिलाफ अभिनव भारत सोसाइटी की शुरुआत करते हैं। लंदन जाकर गोरों का कानून सीखना चाहते हैं, इसलिए ऐसे परिवार में शादी करते हैं, जो उनके विदेश जाने का खर्च उठा सके।

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178 मिनट की फिल्म में रणदीप ने सावरकर का बचपन, आजाद भारत के लिए उनके मन में धधकती ज्वाला, लंदन जाकर फ्री इंडिया सोसाइटी, इंडिया हाउस जैसे संगठनों से जुड़ना, इस कारण ब्रिटिश सरकार का उन्हें गिरफ्तार करना, भारत आते वक्त पानी के जहाज से कूदकर फ्रांस में शरण लेने का प्रयास करना शामिल हैं।इस चक्कर में फिल्म लंबी जरूर हो गई है, लेकिन इस बात का एहसास इंटरवल तक बिल्कुल नहीं होता। काला पानी की सजा के दौरान जेल का वार्डन कहता है कि नर्क में आपका स्वागत है। वहां पर कैद क्रांतिकारियों का हाल देखकर शरीर में सिहरन होती है। आजादी में सांस लेने की कीमत और बढ़ जाती है, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने यातनाएं सहकर हमें दी है।

फिल्म का स्क्रीनप्ले

रदूसरी बायोपिक की तरह कई जगहों पर कहानी एक तरफा भी लगती है, जब दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों की भूमिकाओं को कम आंका जाता है। इतिहास की किताबों में गरम और नरम दोनों दलों का जिक्र है, जो आजादी के लिए अलग-अलग विचारधाराओं के साथ लड़े हैं।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अंहिसावादी विचारधारा से सहमत ना होना एक बात है, लेकिन उन्हें हल्के में दिखाना पचता नहीं है। एक संवाद में सावरकर कहते हैं कि गलतियां मैंने भी की हैं। उन गलतियों का जिक्र भी अगर फिल्म में होता तो शायद कहानी संतुलित हो जाती।

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सुभाष चंद्र बोस और शहीद भगत सिंह क्या वाकई सावरकर से प्रेरित थे? इसे लेकर भी अलग-अलग मत हैं। लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव की शुरुआत की थी। फिल्म में वह दृश्य तो हैं, लेकिन उनके नाम का जिक्र नहीं है। इस पूरे उत्सव का असली मकसद ना दिखाकर केवल सावरकर की लिखी किताब को लोगों तक पहुंचाने तक सीमित कर दिया गया है।

रणदीप के निर्देशन को कितने नम्बर?

रणदीप हुड्डा अभिनय, निर्देशक और सहलेखक के तौर पर पूरे नंबर पाने के हकदार हैं। उन्होंने शारीरिक रुपांतरण और वेशभूषा से सावरकर की युवावस्था से लेकर बढ़ती उम्र के हर पड़ाव को विश्वसनीयता से जीया है। काला पानी की सजा के दौरान दीवारों के बीच अंधेरे में खुद से बातें करना। कई सालों बाद हाथ में कलम पकड़ते हुए यह कहना कि आई लाइक पेन्स, आई लाइक राइटिंग या काला पानी से निकलने के बाद पत्नी से मिलने की खुशी के बीच एक टूटे हुए कांच में अपना चेहरा, सिर से उड़ चुके बाल और गंदे दांतों को देखकर दुखी होना इन सब दृश्यों में रणदीप साबित करते हैं कि वह बेहतरीन अभिनेता हैं।

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अंकिता लोखंडे ने सावरकर की पत्नी यमुनाबाई के रोल को शिद्दत से निभाया है। आजादी की लड़ाई में सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर की भूमिका कितनी अहम रही है, उसका जिक्र भले ही इतिहास की किताबों में ना हो, लेकिन इस फिल्म में जरूर है, जिसे अमित सियाल ने अपने अभिनय से बखूबी दर्शाया है।

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