क्या है रहस्य भारत के विभिन्न देवालयों में सुरक्षित विशाल खजानों का…

नई दिल्ली-  श्रावण के पवित्र मास में श्रद्धालु शिवालयों में पूजा-अर्चना कर रहे हैं तो वहीं कांवड़ यात्राएं भी प्रारंभ हैं। कुछ सप्ताह पूर्व ही भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा संपन्न हुई है तो वहीं श्रावण के बाद भाद्रपद मास में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व में भी अधिक समय नहीं है। इष्टदेव कोई भी हों, अधिकांश भक्त प्रार्थना में सुख-संपत्ति मांगते हैं क्योंकि ईश्वर का अर्थ ही है ऐश्वर्य का स्वामी। जिनके नाम का अर्थ ही ऐश्वर्य से जुड़ता हो, उनके निवास का संपत्ति से संबंध स्वाभाविक है। यह देवार्चन के विशिष्ट दिन हैं। हाल ही में अपने खजाने के लिए चर्चित पुरी का श्रीजगन्नाथ मंदिर और लगभग 12 वर्ष पूर्व अतुलनीय-अपूर्व निधियों के लिए विश्व भर में चर्चा का केंद्र रहा तिरुवनंतपुरम का श्रीपद्मनाभस्वामी मंदिर इसके बड़े उदाहरण हैं।

सनातन परंपरा में विशिष्ट भूमिका

भारत के मंदिरों में खजाने की चर्चा देश-विदेश में होती रही है। सोमनाथ से विश्वनाथ तक, इन पर आधिपत्य के लिए अन्यान्य आततायियों ने भारतभूमि पर आक्रमण और विध्वंस किया। आज भी जब देवस्थानों में खजाने की चर्चा होती है तो हमारी आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। इतना वैभव, इतनी धन-संपत्ति, हम मात्र ऐसा भौतिक आंकलन करने लगते हैं जबकि इसके पीछे सनातन परंपरा में मंदिरों की क्या विशिष्ट भूमिका है,

भारतीय संस्कृति में मंदिरों का क्या विशेष महत्व है, इसपर हमारा ध्यान नहीं जाता। वास्तव में सनातन परंपरा में मंदिर केवल पूजा-अर्चना का स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों का भी केंद्र बिंदु हैं। मंदिरों ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्राचीन काल में मंदिर शक्तिशाली संस्थाएं और सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु थीं। मंदिरों के माध्यम से शैक्षिक और सामाजिक सेवाओं का प्रसार होता था। स्पष्ट है कि इन गतिविधियों में अपार धन का व्यय भी होता था, जिसके लिए मंदिरों में विशिष्ट अर्थतंत्र विकसित था।

प्राचीन भारत में प्रबंधन

मंदिरों का निर्माण महान एवं पुण्यतम आनुष्ठानिक प्रक्रिया है। इतिहास से इसका एक उदाहरण उठाएं तो प्रतिहार नरेशों ने अपने विस्तृत साम्राज्य के अंतर्गत अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया जिसकी पुष्टि तत्कालीन अभिलेखों से होती है। मंदिरों की स्थापना से ही गांवों, कस्बों और नगरों का उदय हुआ। मंदिर-निर्माण ही नगर-निर्माण था। हमारे सभी प्राचीन नगरों में मंदिरों की बहुलता का होना इसी का प्रमाण है।

प्रतिहारकालीन धार्मिक परिवेश में मंदिरों का निर्माण बड़ी संख्या में होने लगा। जनसाधारण में मूर्तिपूजा तथा भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता के साथ देवायतनों की संख्या में वृद्धि हुई फलस्वरूप उसकी व्यवस्था का दायित्व शासकों पर आया। इसके विषय में सूचनाएं अभिलेखों से प्राप्त होती हैं। प्रतिहार सम्राटों, उनके सामंतों आदि के अभिलेखों में तत्कालीन मंदिरों की प्रशासनिक एवं वित्तीय व्यवस्था के विषय में सूचनाएं प्राप्त होती हैं।

सत्ता और स्वायत्तता में संतुलन

पूर्व में हुए विवाद, जैसे कि केरल में पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रशासन पर बहस, जिसमें मंदिर की संपत्तियों की निगरानी और सुरक्षा के बारे में सवाल उठे, इस तनाव को उजागर करते हैं। ताजा बहस में ओडिशा के श्रीजगन्नाथ मंदिर का प्रशासन है तो वहीं तमिलनाडु में चिदंबरम नटराज मंदिर का प्रशासन राज्य और पारंपरिक संरक्षकों के बीच लंबे समय से कानूनी लड़ाई का विषय रहा है।

इन तमाम किंतु-परंतु के बीच अंतिम सत्य यही है कि भारत में मंदिर धार्मिक स्थलों से विकसित होकर बहुआयामी संस्थाओं में बदले थे, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नवाचारों के माध्यम से, मंदिर आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन के स्तंभों के रूप में काम करना जारी रख सकते हैं, बशर्ते हम उनकी संपदा को खजाने नहीं, समाज संचालन के लिए संचित पूंजी के रूप में देख पाएं!

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