Supreme Court On IT ACT 66 A: सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की 66 (ए) धारा के बारे में बड़ी बात कही है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को राज्यों और उनकी पुलिस को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) के तहत सोशल मीडिया पर ‘फ्री स्पीच’ पर गिरफ्तारी और मुकदमा चलाने से रोकने का आदेश दिया है। इसी कड़ी में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस धारा के तहत जो भी केस दर्ज हुए हैं, उन्हें रद्द किया जाए।
SC ने 7 साल पहले धारा को घोषित किया था असंवैधानिक
सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को “परेशान करने वाला” और “भयानक” दोनों पाया था, बावजूद इसके पुलिस ने इस धारा के तहत कई लोगों को गिरफ्तार करना और उन पर मुकदमा चलाना जारी रखा था। जबकि उन्हें पता था कि देश की सर्वोच्च अदालत ने सात साल पहले ही इस कठोर धारा को असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित की अगुवाई वाली एक पीठ ने “सभी पुलिस महानिदेशकों के साथ-साथ राज्यों के गृह सचिवों और केंद्र शासित प्रदेशों में सक्षम अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे अपने संबंधित राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों में अपने पूरे पुलिस बल को आईटी एक्ट की धारा 66 (ए) के कथित उल्लंघन के संबंध में अपराध किसी भी शिकायत दर्ज न करने का निर्देश दें।
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार के फैसले को लागू करने के दिशानिर्देश तय किए, जिसने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66 (ए) को असंवैधानिक घोषित किया था। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह निर्देश केवल धारा 66ए के तहत लगाए गए आरोप पर लागू होगा और किसी मामले में अन्य अपराधों पर लागू नहीं होगा।
जानिए, इस धारा के तहत पहले क्या होता था?
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 66 (ए) ने किसी भी व्यक्ति के लिए कंप्यूटर या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का उपयोग करके आपत्तिजनक जानकारी भेजना एक दंडनीय अपराध था। इस नियम के तहत किसी व्यक्ति का ऐसी जानकारी भेजना भी दंडनीय अपराध था जिसे वह गलत मानता है। यहां तक कि अगर मैसेज से किसी को गुस्सा आए, असुविधा हो वो भी अपराध था। गुमराह करने वाले लिए ईमेल भेजना भी इस धारा के तहत दंडनीय अपराध माने गए थे।
2015 में एक्ट रद्द हुआ फिर भी दर्ज होते रहे मामले
इस नियम के तहत सोशल मीडिया पर ‘आपत्तिजनक, उत्तेजक या भावनाएं भड़काने वाले पोस्ट’ पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 19(1) (A) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के खिलाफ बताकर निरस्त कर दिया था। इस मामले में पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज संस्था ने याचिका दायर की थी। इस संस्था ने अदालत में दलील दी थी कि साल 2015 में इस एक्ट के रद्द होने के बावजूद देश भर में इस फैसले पर ध्यान न देते हुए आईटी एक्ट के 66 (ए) धारा के तहत कई मामले दर्ज किए थे।