सुभाष चंद्र बोस कलकत्ता के प्रेसिडेंसी जेल में कैद थे। तबीयत बिगड़ी तो उन्हें 14 जासूसों की निगरानी में घर भेज दिया गया। 16-17 जनवरी 1941, वक्त रात के करीब 1:30 बजे। नेताजी ने मुस्लिम का रूप धरा और वंडरर कार से भाग निकले।इसके बाद वे सिर्फ एक बार भारत लौटे। वो दिन था 29 दिसंबर 1943 और जगह पोर्ट ब्लेयर। सुभाष अब आजाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री थे। अगले दिन ,यानी 30 दिसंबर को उन्होंने पोर्ट ब्लेयर में झंडा फहराया। यह पहली बार था, जब अंग्रेजों से छीनी हुई भारत भूमि पर किसी भारतीय ने प्रधानमंत्री के रूप से झंडा फहराया हो।’इसलिए के अंडमान पहुंचने का दिलचस्प किस्सा विस्तार से बताएंगे, लेकिन उससे पहले इन 4 सीन से होकर गुजरिए..
सीन 1: तारीख 5 अगस्त, 1943
सुभाषचंद्र बोस ने सिंगापुर के मौजूदा कनॉट ड्राइव के पास पाडांग में बतौर सुप्रीम कमांडर, आजाद हिंद फौज, यानी INA के जवानों को संबोधित किया। वे ऐलान करते हैं कि INA 1943 के अंत तक भारत की जमीन पर होगी। ठीक एक महीना पहले, 5 जुलाई को बोस ने INA की मौजूदगी के बारे में दुनिया को बताया था। तब उन्होंने कहा था, INA का मकसद है-दिल्ली चलो।
सीन 2 : तारीख 21 अक्टूबर 1943
सिंगापुर में सुभाषचंद्र बोस ने प्रोविजनल गवर्नमेंट ऑफ फ्री इंडिया PGFI, यानी अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद, यानी आजाद हिंद सरकार बनाने का ऐलान किया। ऊपर दिख रही तस्वीर उसी मौके की है। सरकार में 11 मंत्री और INA के 8 प्रतिनिधि थे। सुभाष खुद राज्य प्रमुख, प्रधानमंत्री और युद्ध मंत्री थे। इस सरकार को जापान, जर्मनी, इटली, क्रोएशिया, बर्मा, थाईलैंड, फिलिपींस, मंचूरिया और चीन (बांग जिंगवी की सरकार) ने मान्यता दे दी।
सीन 3 : तारीख 6 नवंबर 1943
टोक्यो में ग्रेटर ईस्ट एशिया, यानी जापानी प्रभाव वाले देशों की कॉन्फ्रेंस के आखिरी दिन जापान के PM हिदेकी टोजो ने अंडमान-निकोबार को आजाद हिंद सरकार के हवाले करने ऐलान किया। जापान ने 1942 में ब्रिटेन से ये द्वीप जीते थे। ऊपर नजर आ रही तस्वीर उसी कॉन्फ्रेंस की है। ठीक बीच में हैं, जापान के PM और सबसे दाईं ओर हैं सुभाष चंद्र बोस।कॉन्फ्रेंस में बोस ने घोषणा की…”जिस तरह फ्रांसीसी क्रांति में सबसे पहले पेरिस में बास्टिल को आजाद करवाकर राजनीतिक कैदियों को मुक्त किया गया, वैसे ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अंडमान को सबसे पहले मुक्त कराया जाएगा, जहां हमारे देशभक्तों को यातनाएं दी गईं।”
सीन 4 : तारीख 30 दिसंबर 1943
29 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर की हवाई पट्टी पर जापानी सेना का एक विमान उतरा। विमान से आजाद हिंद सरकार के राष्ट्रप्रमुख और प्रधानमंत्री सुभाषचंद्र बोस, सेक्रेटरी विद मिनिस्टर रैंक आनंद मोहन सहाय, ADC कैप्टन रावत और बोस के डॉक्टर कर्नल डीएस राजू उतरते हैं।
अंडमान में आजाद हिंद सरकार के गर्वनर मे. ज. आरकॉट दोरइस्वामी लोगानंदन और पोर्ट ब्लेयर के जापानी एडमिरल ने उन्हें रिसीव किया। ऊपर दिख रही तस्वीर ठीक उसी समय की है। अगले दिन 30 दिसंबर को बोस ने पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना ग्राउंड में अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इस तरह उन्होंने 1943 के अंत तक भारत की भूमि पर INA को पहुंचाने का वादा पूरा कर दिया था।
आज मैं उसी अंडमान क्लब और जिमखाना ग्राउंड के पास खड़ी हूं, जहां नेताजी ने पहली बार अपना झंडा फहराया था। 30 दिसम्बर 2018 को इसके स्थान को बदल कर समुद्र के पास रॉस आइलैंड के सामने शिफ्ट किया गया। यहां 150 फीट ऊंचा तिरंगा नेताजी की यादों को लिए आसमान में लहरा रहा है। उस वक्त की कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें भी यहां मौजूद हैं।अब ये जगह एक टूरिस्ट स्पॉट के रूप में बदल गई है। हर शाम सैकड़ों की संख्या में यहां सैलानी आते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी को यहां उन लोगों को सम्मानित भी किया जाता है, जिसने किसी न किसी फील्ड में बेहतर काम किया हो।
यहां से नेताजी सेल्यूलर जेल गए, लेकिन जापानी सैनिकों ने बड़ी चालाकी से उन्हें सिर्फ खाली सलाखें दिखाईं। वे उन क्रांतिकारियों को नहीं देख पाए जिन्हें जापानियों ने बंदी बनाकर तरह-तरह के जुल्म किए थे। IIL के पूर्व अध्यक्ष दीवान सिंह और उनके साथियों को जापानी सैनिकों ने तब तक प्रताड़ित किया, जब तक उनकी जान नहीं निकल गई। इतना कहते हुए गौरी शंकर थोड़ा रुकते हैं, उनकी आंखें नम हो जाती हैं।
फांसी घर- एक साथ तीन लोगों को दी जाती थी फांसी
कालापानी… नाम तो आपने सुना ही होगा। सेल्यूलर जेल की वो जगह जहां क्रांतिकारियों को सजा दी जाती थी। यहां मैं जैसे ही फांसी घर के पास पहुंचती हूं, अजीब सा महसूस होता है। मन भारी होने लगता है। लोहे के बड़े और गोल-गोल छल्ले आज भी उस दर्द को बयां करते हैं, जहां क्रांतिकारियों को फांसी दी जाती थी। यहां एक साथ तीन लोगों को फांसी दी जाती थी।
इतना ही नहीं जेल में बंद क्रांतिकारियों को कठोर यातनाएं दी जाती थी। मसलन कोल्हू से तेल निकालना, रस्सी बनाना, नारियल के छिलके कूटना। हर रोज उन्हें 30 पौंड नारियल का तेल और 10 पौंड सरसो का तेल निकालना होता था। काम वक्त पर पूरा न हो तो सजा मिलनी तय थी। ऐसी सजा कि कई क्रांतिकारियों की जान भी चली गई। कई ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया। उसकी गवाह ये इमारतें, लोहे की सलाखें और अंधेरी कोठरियां हैं।
अब इन 3 तस्वीरों के बारे में भी जान लीजिए
चलिए अब मुस्लिम रूप में नेताजी के अंडमान पहुंचने का वो दिलचस्प किस्सा जानते हैं…
हिटलर के 965 जर्मन विमानों ने लंदन पर बम बरसाने शुरू कर दिए। इधर कलकत्ता के प्रेसिडेंसी जेल में सुभाष चंद्र बोस कैद थे। उन्हें 2 जुलाई 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था। 29 नवंबर को बोस ने जेल में भूख हड़ताल शुरू की। धीरे-धीरे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी।बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट को लगा कि अब सुभाष को उनके घर भेज देना चाहिए। जब ठीक हो जाएं तो फिर से गिरफ्तार कर लिया जाएगा, ताकि उन पर ये आरोप न लगे कि अंग्रेज सरकार की हिरासत में सुभाष की मौत हो गई।
5 दिसंबर को हरबर्ट ने बोस को उनके घर भेज दिया। पता कलकत्ता का एल्गिन रोड, मकान नंबर 38/2, जहां 14 जासूस दिन-रात निगरानी कर रहे थे। उसी दिन दोपहर में सुभाष ने अपने भतीजे शिशिर को बुलाया। उन्होंने शिशिर से पूछा- मेरे लिए एक काम करोगे? शिशिर सुभाष का इरादा भांप गए कि वे जेल से भागना चाहते हैं।इसके बाद नई रणनीति बनी। शिशिर बाजार गए और कुछ विजिटिंग कार्ड्स छपवाए। उन कार्ड्स पर लिखा- मोहम्मद जियाउद्दीन, BA LLB, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पयार ऑफ इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थाई पता- सिविल लाइंस, जबलपुर। शिशिर ने अपनी किताब द ग्रेट एस्केप में इस बात का जिक्र किया है।
करीब डेढ़ महीने बाद। तारीख 16-17 जनवरी 1941, वक्त रात के करीब 1:30 बजे।
सुभाष ने मुस्लिम का रूप धरा और अपने भतीजे के साथ एक जर्मन वंडरर कार में सवार हो गए। अगले दिन सुबह दोनों वहां से करीब 275 किमी. दूर धनबाद पहुंचे। दिनभर यहां छुपे रहे और रात होने का इंतजार किया। जैसे ही शाम ढली सुभाष गोमो के लिए निकल पड़े। घंटे भर में गोमो पहुंच गए।
इसके बाद यहां से उन्होंने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी। इसके बाद वहां से वे पेशावर पहुंच गए। वहां उन्होंने एक गूंगे-बहरे पठान का रूप धर लिया, क्योंकि वे वहां की स्थानीय भाषा पश्तो नहीं जानते थे। इसके बाद पेशावार से 31 जनवरी 1941 की सुबह वे काबुल पहुंचे। यहां जर्मन और इटली के दूतावास के जरिए समरकंद होते हुए नेताजी पहले मॉस्को और फिर जर्मनी पहुंचे।
सुभाष चंद्र बोस की जर्मनी से जापान पहुंचने की कहानी भी फिल्मी है। उन्हें पहले जर्मन पनडुब्बी से पूर्वी अफ्रीका के करीब मेडागास्कर के समुद्र तक लाया गया। वहां बीच समुद्र में खतरनाक तरीके से उन्हें जापानी पनडुब्बी में ट्रांसफर किया गया। ऊपर की तस्वीर में सबसे बाईं ओर उसी पनडुब्बी के क्रू के साथ चश्मे में सुभाष नजर आ रहे हैं। तस्वीर 28 अप्रैल 1943 की है।