पूजा-पाठ हो या कोई हवन-अनुष्ठान, कपूर के बिना पूरा नहीं होता. बस माचिस की तीली दिखाते ही कपूर जलने लगता है और एक भीनी सुगंध फैल जाती है. क्या आपने कभी सोचा है कि कपूर बनता कैसे है, इसका पौधा कैसा होता और ये क्यों इतना ज्वलनशील होता है.मार्केट में दो तरह के कपूर मिलते हैं. एक प्राकृतिक कपूर और दूसरा आर्टिफिशियल तरीके से फैक्ट्री में तैयार किया गया. प्राकृतिक कपूर एक पेड़ से बनता है, जिसे कम्फूर ट्री से बनाया जाता है.
इसका वैज्ञानिक नाम Cinnamomum Camphora है. कम्फूर ट्री की लंबाई 50-60 फीट तक होती है और इसकी पत्तियां गोल आकार की 4 इंच तक चौड़ी हो सकती हैं. कपूर इस पेड़ की छाल से बनाया जाता है. कम्फूर की छाल जब सूखने लगती है या ग्रे कलर की दिखने लगती है तब इसको पेड़ से अलग कर लेते हैं. फिर इसको गर्म करने के बाद रिफाइन किया जाता है और पाउडर बनाया जाता है. जरूरत के मुताबिक आकार दे दिया जाता है.
कहां से आया कपूर ट्री, खूनी है इसका इतिहास
कम्फूर ट्री की उत्पत्ति पूर्वी एशिया में मानी जाती है, खासकर चीन में. हालांकि कुछ वनस्पति विज्ञानी कम्फूर ट्री को जापान का नैटिव बताते हैं. चीन के तांग राजवंश (618-907 ईस्वी) के दौरान बनाई गई कम्फूर ट्री से आइसक्रीम बनाई जाती थी और खासी लोकप्रिय थी. इसे और कई तरीके से इस्तेमाल में लिया जाता था. चीनी लोक चिकित्सा में इस पेड़ का कई तरीके से इस्तेमाल होता था. नौवीं शताब्दी के आसपास कम्फूर ट्री से आसवन विधि के जरिये कपूर बनाने की शुरुआत हुई और फिर धीरे-धीरे यह पूरी दुनिया में फैल गया.
18वीं शताब्दी तक फार्मोसा गणराज्य (जिसे अब ताइवान के नाम से जानते हैं) कम्फूर ट्री का सबसे बड़ा उत्पादक था. उस वक्त फॉर्मोसा क्विंग राजवंश (Qing Dynasty) के अधीन था. उन्होंने फार्मोसा के जंगलों पर अपना एकाधिकार थोप दिया, जिसमें कम्फूर भी शामिल था. बिना अनुमति के पेड़ छूने तक पर कड़ी सजा का प्रावधान था. 1720 में तो नियम तोड़ने के आरोप में लगभग 200 लोगों का सिर कलम कर दिया गया. साल 1868 में यह एकाधिकार समाप्त हुआ. हालांकि 1899 में जापान ने इस द्वीप पर अपना कब्जा जमाया और उसने भी क्विंग डायनेस्टी जैसा एकाधिकार थोप दिया. इसी अवधि में पहली बार सिंथेटिक कपूर का आविष्कार हुआ.
भारत में कब और कैसे आया कपूर का पौधा
इस बीच भारत भी कपूर उत्पादन पर काम करने की कोशिश कर रहा था. साल 1932 में प्रकाशित एक शोध पत्र में कोलकाता के स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के आर.एन. चोपड़ा और बी. मुखर्जी लिखते हैं कि 1882-83 के बीच लखनऊ हॉर्टिकल्चर गार्डन में कपूर उत्पन्न करने वाले पेड़ों की सफल खेती देखी गई थी. हालांकि यह सफलता ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई, लेकिन कोशिशें जापी रहीं और आने वाले सालों में कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर कम्फूर ट्री की खेती होने लगी.
क्यों कपूर के पेड़ को कहा जाता है ब्लैक गोल्ड
कम्फूर ट्री को ब्लैक गोल्ड भी कहा जाता है. इसकी गिनती सबसे बहुमूल्य पेड़ों में होती है. इस पेड़ से सिर्फ पूजा-पाठ में इस्तेमाल होने वाला कपूर ही नहीं बल्कि और कई चीजें भी बनती हैं. जैसे एसेंशियल ऑयल, कई तरह की दवाएं, इत्र, साबुन आदि. कपूर के पेड़ में छह अलग-अलग रसायन पाए जाते हैं, जिन्हें केमोटाइप्स कहा जाता है. ये केमोटाइप्स हैं: कपूर, लिनालूल, -सिनिओल, नेरोलिडोल, सैफ्रोल, और बोर्नियोल.
क्यों तुरंत जलने लगता है कपूर?
कपूर (Capoor) में कार्बन और हाईड्रोजन की मात्रा अत्यधिक होती है, जिसका ज्वलन तापमान बहुत कम होता है. यानी जरा सा हीट होते ही जलने लगता है. कपूर अत्यंत वाष्पशील पदार्थ है. जब कपूर को गर्म किया जाता है, तो यह वाष्प तेजी से हवा में फैल जाती है और ऑक्सीजन के साथ मिलकर बहुत आसानी से जलने लगता है.