डोंगरगढ़ – प्रसिद्ध जैन संत आचार्य विद्यासागर महाराज का छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में चंद्रगिरि तीर्थ पर निधन हो गया. आचार्य विद्यासागर महाराज दिगंबर जैन समुदाय के सबसे प्रसिद्ध संत थे.आचार्य विद्यासागर को उनके उत्कृष्ट विद्वत्ता और गहन आध्यात्मिक ज्ञान के लिए जाना जाता था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैन संत आचार्य विद्यासागर महाराज के निधन पर शोक व्यक्त किया. पीएम मोदी ने आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के निधन को राष्ट्र के लिए अपूरणीय क्षति बताते हुए समाज में आध्यात्मिक गुरु के योगदान के गहरे प्रभाव की सराहना की.
जैन संत आचार्य विद्यासागर ने जैन धर्म में प्रसिद्ध सल्लेखना विधि से अपने प्राण का त्याग किया. सल्लेखना जैन धर्म की एक प्रथा है, चलिये इसके बारें में जानते है.
उपवास के बाद किया देह त्याग:
आचार्य ज्ञान सागर के शिष्य आचार्य विद्यासागर ने 77 साल की उम्र में 3 दिनों के उपवास के बाद अपना देह त्याग किया. उनके शरीर त्यागने का पता चलते ही उनके आखिरी दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. पिछले साल 5 नवंबर को पीएम मोदी ने डोंगरगढ़ पहुंच कर उनका आशीर्वाद लिया था.
कौन थे संत विद्यासागर महाराज?
जैन संत विद्यासागर महाराज का जन्म कर्नाटक के बेलगांव के सदलगा गांव में 10 अक्टूबर 1946 को हुआ था. उनके 3 भाई और 2 बहनें है. उनकी बहनों ने भी ब्रह्मचर्य लिया है. साल 1968 में 22 वर्ष की आयु में, आचार्य विद्यासागर महाराज को आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा दिगंबर साधु के रूप में दीक्षा दी गई. 1972 में उन्हें 1972 में आचार्य का दर्जा दिया गया था. आचार्य विद्यासागर महाराज ने अभी तक 500 से ज्यादा मुनि को दीक्षा दे चुके है.
अपने पूरे जीवनकाल में, आचार्य विद्यासागर महाराज जैन धर्मग्रंथों और दर्शन के अध्ययन और अनुप्रयोग में गहराई से लगे रहे. उन्होंने कई कविताएँ और आध्यात्मिक ग्रंथ लिखे. वह संस्कृत, प्राकृत और अन्य भाषाओं पर अपनी पकड़ के लिए भी जाने जाते थे.
अगला आचार्य कौन बना?
समाधि से 3 दिन पहले आचार्य विद्यासागर महाराज ने आचार्य पद का त्याग कर दिया था. उन्होंने आचार्य का पद अपने पहले मुनि शिष्य निर्यापक श्रमण मुनि समयसागर को दिया. उन्होंने 6 फरवरी के दिन ही आचार्य पद के लिए निर्यापक श्रमण मुनि समयसागर को चुन लिया था.
क्या है सल्लेखना प्रथा:
जैन धर्म अपनी कई विशेषताओं के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है. जैन धर्म में सल्लेखना (Sallekhana) विधि का अपना अलग ही महत्व है. सल्लेखना विधि के जरिए जैन धर्म के मुनि अपना प्राण त्याग करते है. जैन दर्शन में इसे साधु मरण कहते हैं.
सल्लेखना प्रथा में देह त्याग करने के लिए स्वेच्छा से अन्न और जल का त्याग किया जाता है और परमात्मा के प्रति अपना ध्यान करता है. ‘सल्लेखना’ शब्द ‘सत्’ और ‘लेखन’ के योग से बना है जिसका अर्थ होता है ‘अच्छाई का लेखा-जोखा’. अन्ना-जल सब कुछ छोड़कर वह परमात्मा के प्रति अपना ध्यान लगता है और देवलोक को प्राप्त हो जाता है. इसे प्रथा को जैन धर्म में कई अन्य नामों संथारा, ‘संन्यास-मरण’, ‘समाधि-मरण’, ‘इच्छा-मरण’ से भी जाना जाता है.
चंद्रगुप्त मौर्य ने किया था सल्लेखना का पालन:
मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने भी इसी विधि से अपने प्राणों का त्याग किया था. उन्होंने कर्नाटक के श्रावणबेलगोला में सल्लेखना विधि अपनाकर अपना देह त्याग किया था. इतिहास में पहले भी जैन धर्म में आस्था रखने वाले लोग सल्लेखना के माध्यम से प्राण त्याग चुके हैं.