नई दिल्ली- सड़क पर चलते हुए सबसे ज्यादा परेशान करती है ड्राइवर्स और राइडर्स की रैश ड्राइविंग. उतनी ही ज्यादा परेशान करती है गैर जरूरी हॉन्किंग. बेवजह हॉर्न बजाने वाले ये भी नहीं देखते कि सिग्नल पर बत्ती लाल है. न ही ये सोचते हैं कि उनके हॉर्न बजाने से ट्रैफिक क्लियर नहीं हो जाएगा. लोगों की सहूलियत के लिए बनाए गए हॉर्न का लोग कितना मिस यूज करते हैं. केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकार एक ऐसी योजना पर काम कर रही है जिसमें गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ को कम करके 50 डेसिबल तक कर दिया जाएगा.
ध्वनि प्रदूषण कम करने के लिए उठाया जा रहा कदम
नितिन गडकरी ने मिंट से कहा, “हम सेंट्रल मोटर व्हीकल रूल में संशोधन करके हॉर्न की अधिकतम परमिसिबल आवाज़ को 70 डेसिबल से घटाकर 50 डेसिबल करने का प्रपोज़ल दे रहे हैं. इसके साथ ही हम कुछ ऐसे ट्यून्स को अपनाने का सुझाव भी देंगे जो कान में ज्यादा चुभे न और आवाज़ की क्वालिटी वॉर्निंग देने के लिए काफी हो.”
अभी हॉर्न की आवाज़ के लिए किन रेगुलरेशंस का पालन होता है?
अभी दो पहिया गाड़ियों के हॉर्न में अधिकतम 80 से 91 डेसिबल आवाज़ का इस्तेमाल किया जा सकता है. वहीं तीन पहिया, कार और कमर्शियल गाड़ियों में दिन के समय 53 डेसिबल और रात के समय 45 डेसिबल की सेफ लिमिट तय की गई है. कई गाड़ी चालक इन रेगुलेशंस का पालन नहीं करते हैं. ट्रक, बस और कई बाइक चालक तय लिमिट से ज्यादा आवाज़ वाले हॉर्न्स का उपयोग करते हैं.भारतीय सड़कों पर नोइस लेवल 100 डेसिबल के करीब रहता है.
ज्यादा आवाज़ के क्या नुकसान होते हैं?
इंडियन मेडिकल असोसिएशन के अनुसार, अगर आप हफ्ते में पांच दिन 6 से 8 घंटे तक 80 डेसिबल की आवाज़ सुनते हैं तो बहरापन हो सकता है या मानसिक स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ सकता है.प्रपोजल्स के अप्रूव होने के बाद व्हीकल मैनुफैक्चरर्स के लिए ये अनिवार्य होगा कि वो गाड़ी बनाते समय आवाज़ के तय मानकों का उपयोग करें. ऐसा नहीं करने पर मैनुफैक्चरर्स से फाइन लिया जा सकता है या फिर चालकों पर फाइन लगाया जा सकता है.