आज से गणेश उत्सव शुरू हो गया है। गणेश स्थापना के पहले दिन महाराष्ट्र के अष्टविनायक के दर्शन करें। गणेश जी का एक नाम विनायक है। इसलिए इन मंदिरों को अष्टविनायक कहते हैं। मान्यता है कि ये 8 मर्तियां स्वयंभू (यानी अपने आप प्रकट हुईं) हैं। हालांकि, इन्हें असली पहचान पेशवाओं के जमाने में मिली।
इन आठ गणपति का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।ये सारे मंदिर पुणे के आसपास ही स्थित हैं, लेकिन अगर आप इनके दर्शन करना चाहते हैं तो आपको करीब 1000 किलोमीटर की यात्रा करनी होगी…
अष्ट गणपति के दर्शन के लिए 1000 किलोमीटर का सफर
ये आठ अति प्राचीन मंदिर भगवान गणेश के आठ शक्तिपीठ भी कहलाते हैं। इन पवित्र मूर्तियों के मिलने के क्रम के अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा की जाती है। पुणे से इन सभी मंदिरों तक पहुंचने के लिए हमें 1 हजार किलोमीटर का सफर करना पड़ता है। शास्त्रों में वर्णन है कि अष्टगणपति की इस यात्रा को मोरगांव गणपति मंदिर से शुरू कर यहीं आकर समाप्त करना चाहिए। इस यात्रा का महत्व भी 12 ज्योतिर्लिंगों जैसा है।
अष्टविनायक मंदिरों का क्रम कुछ ऐसा है
मयूरेश्वर मंदिर: गणपतिजी का यह मंदिर पुणे से 80 किलोमीटर दूर मोरगांव परिसर में स्थित है। मयूरेश्वर गणपति मंदिर के चारों दिशाओ में लंबे पत्थरों की दीवारें हैं। यहां स्थित चारों दरवाजे चारों युग सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक हैं।इस मंदिर के द्वार पर शिवजी के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित है, इसका मुंह भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है। नंदी की मूर्ति के संबंध में यह मान्यता प्रचलित है कि प्राचीन काल में शिवजी और नंदी इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे, लेकिन बाद में नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। तभी से नंदी यहीं पर हैं। नंदी और मूषक (चूहा) दोनों ही मंदिर के रक्षक के रूप में रहते हैं। मंदिर में गणेशजी बैठी मुद्रा में विराजमान हैं और उनकी सूंड़ बाएं हाथ की ओर है, उनकी चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं।
सिद्धिविनायक मंदिर: अष्टविनायक में दूसरे गणेश हैं सिद्धिविनायक। यह मंदिर पुणे से करीब 48 किमी दूरी पर स्थित है। इस मंदिर के पास ही भीम नदी है। यह मंदिर पुणे के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है, क्योंकि यह करीब 200 साल पुराना है। मान्यता है कि यही पर भगवान विष्णु ने सिद्धियां हासिल की थीं। सिद्धिविनायक मंदिर एक पहाड़ की चोटी पर बना हुआ है। जिसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। मंदिर की परिक्रमा के लिए पहाड़ी की यात्रा करनी होती है। यहां गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। भगवान गणेश की सूंड़ सीधे हाथ की ओर है।
बल्लालेश्वर मंदिर: अष्टविनायक में तीसरा मंदिर श्री बल्लालेश्वर मंदिर है। यह मंदिर मुंबई-पुणे हाईवे पर पाली से टोयन में और गोवा राजमार्ग पर नागोथाने से पहले 11 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर का नाम गणेशजी के भक्त बल्लाल के नाम पर पड़ा है।मान्यता है कि प्राचीन काल में बल्लाल नामक एक भक्त को उसके घर वालों ने गणेशजी की प्रतिमा के साथ जंगल में फेंक दिया था। गंभीर हालत में बल्लाल गणेशजी के मंत्रों का जप कर रहे थे। इस भक्ति से प्रसन्न होकर गणेशजी ने उन्हें दर्शन दिए। तब बल्लाल ने गणेशजी से आग्रह किया अब वे इसी स्थान पर निवास करें। गणपतिजी ने आग्रह मान लिया। तभी से गणेशजी बल्लालेश्वर नाम से यहां विराजित हो गए।
वरदविनायक मंदिर: अष्ट विनायक में चौथे गणेश जी हैं श्री वरदविनायक। यह मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर क्षेत्र में स्थित है। यहां एक सुंदर पर्वतीय गांव है महाड़। इसी गांव में है श्री वरदविनायक मंदिर। यहां प्रचलित मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामना को पूरा करते हैं।इस मंदिर में नंददीप नाम का एक दीपक है जो कई वर्षों से प्रज्ज्वलित है। वैसे तो इस मंदिर का पौराणिक महत्व है और ऋषि विश्वामित्र की एक कथा भी इस मंदिर से जुड़ी हुई है, लेकिन आधुनिक काल में इस मंदिर का निर्माण सन 1725 का माना जाता है। उस समय सूबेदार रामजी बिलवलकर ने इसका निर्माण करावाया था।
चिंतामणि गणपति: अष्टविनायक में पांचवें स्थान में हैं चिंतामणि गणपति। यह मंदिर पुणे जिले से 30 किलोमीटर दूर हवेली परिसर में स्थित है। मंदिर के पास ही दो नदियों मुला और मुथा का संगम है। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यदि किसी भक्त का मन बहुत विचलित है और जीवन में दुख ही दुख प्राप्त हो रहे हैं तो इस मंदिर में आने पर उसकी सभी समस्याएं दूर हो जाएंगीं।मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को वश में करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी।
चिंतामणि गणपति के प्रमुख पुजारी सचिन अगलावे ने बताया कि चिंतामणि गणपति के दर्शन मात्र से शारीरिक, आर्थिक और मानसिक सभी तरह की चिंताएं समाप्त हो जाती हैं। इस मंदिर को माता की जगह माना जाता है। यहां गणपति एक माता की तरह अपने बच्चों की चिंता करते हैं। चिंतामणि के नाभि में हीरा है और उनके माथे पर शेषनाग का प्रभाव है। यहां दिन में तीन बार पूजन और दर्शन होता है।
श्री गिरजात्मज गणपति मंदिर: अष्टविनायक में छठें स्थान में है श्री गिरजात्मज। यह मंदिर पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। परिसर के नारायणगांव से इस मंदिर की दूरी 12 किलोमीटर है। गिरजात्मज का अर्थ है गिरिजा यानी माता पार्वती के पुत्र गणेश। यह मंदिर लेन्याद्री पहाड़ स्थित हैं जहा पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं और इनमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। यह पूरा मंदिर ही एक बड़े पत्थर को काटकर बनाया गया है।
विघ्नेश्वर गणपति मंदिर: अष्ट विनायक में सातवें स्थान में हैं विघ्नेश्वर गणपति। यह मंदिर पुणे के ओझर जिले में जूनर क्षेत्र में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार विघनासुर नामक एक असुर था जो संतों को प्रताड़ित करता रहता था। भगवान गणेश ने इसी क्षेत्र में उस असुर का वध किया और सभी को कष्टों से मुक्ति दिलवाई थी। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है।
महागणपति मंदिर: अष्टविनायक मंदिर के आठवें स्थान में हैं ‘महागणपति।’ यह मंदिर पुणे के रांजणगांव में स्थित है। यह पुणे-अहमदनगर राजमार्ग पर 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का इतिहास 9-10वीं सदी के बीच माना जाता है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है जो कि बहुत विशाल और सुन्दर है। यहां की गणेश जी प्रतिमा अद्भुत है। प्रचलित मान्यता के अनुसार मंदिर की मूल मूर्ति तलघर में छिपी हुई है। पुराने समय में जब विदेशियों ने यहां आक्रमण किया था तो उनसे मूर्ति को बचाने के लिए उसे तहखाने में छिपा दिया गया था।
प्राचीन काल से उपासना के सबसे बड़े केंद्र रहे हैं अष्टगणपति
पुणे में धार्मिक विषयों के जानकार अभय तिलक ने बताया कि महाराष्ट्र में उपासना की पांच धाराएं बहती रही हैं, उनमें सबसे प्राचीन है नाथ संप्रदाय। नाथ की तरह ही गणेशजी की उपासना करने वाले गाणपत्य समुदाय के लोग भी पुणे और उसके आसपास सक्रिय रहे हैं।मान्यता है कि बाप्पा के तीन सबसे बड़े उपासक हुए हैं, उनमें सबसे प्रमुख हैं मोरया गोसावी। इनका प्रभाव क्षेत्र थेयूर, मोरगांव और सिद्धगांव में था। दूसरे उपासक थे गणेश देवत्य और तीसरे थे गणेश योगी। इन तीनों की उपासना का केंद्र यह अष्टगणपति रहे हैं।
व्यापारियों की रक्षा करते रहे हैं अष्टविनायक
इन अष्टगणपति का एक भौगोलिक महत्व भी है। महाराष्ट्र को दक्षिण और उत्तर भारत को जोड़ने वाली धरती कहा जाता है। पुणे से कोंकण और गुजरात में जो व्यापार होता था, उसी ट्रेड रूट पर ये अष्टगणपति मौजूद हैं।यह मान्यता रही है कि विघ्नहर्ता व्यापारियों की रक्षा करते थे, इसलिए वे यहां से गुजरने के दौरान उनकी पूजा करते थे और धीरे-धीरे इन व्यापारियों ने अष्टगणपति की महिमा देश के कोने-कोने तक पहुंचाई।